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बोल

बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे बोल ज़बाँ अब तक तेरी है तेरा सुत्वाँ जिस्म है तेरा बोल कि जाँ अब तक तेरी है देख कि आहन-गर की दुकाँ में तुंद हैं शोले सुर्ख़ है आहन खुलने लगे क़ुफ़्लों ...
काँच के पीछे चाँद भी था और काँच के ऊपर काई भी तीनों थे हम वो भी थे और मैं भी था तन्हाई भी कल साहिल पर लेटे लेटे कितनी सारी बातें कीं आप का हुंकारा न आया चाँद ने बात कराई भी - गुलज़ार
है मोहब्बत हयात की लज़्ज़त वर्ना कुछ लज़्ज़त-ए-हयात नहीं क्या इजाज़त है एक बात कहूँ वो मगर ख़ैर कोई बात नहीं - जौन एलिया

रे मीता

रे मीता चल भागे चल दौड़े... एक गली न छोड़े कच्ची अमिया तोड़े चाहे रोके लोग निगोड़े रे मीता गम की बाह मरोड़े रे मीता चल भागे चल दौड़े रे मीता मैं बन्दर तू भालू शल्जम कच्च कचालू चल घुटने लहू सना ले चल गिर गिर जख्म लगा ले रे मीता बचपन फुंसी फोड़े रे मीता गम की बाह मरोड़े रे मीता चल भागे चल दौड़े रे मीता कटी पतंगे लुटे जामुन काले कलूटे सुन मंदिर घंटी बाजी सुन मिस्री बांटे आजी रे मीता तबडक तबडक घोड़े रे मीता गम की बाह मरोड़े रे मीता चल भागे चल दौड़े रे मीता मुनिया बानी लुगाई खूसट की तेहरवी आई रे मीता दोनों तरफ मिठाई हमने भी गजब पचाई सब चुटकुले हंसोड़े रे मीता गम की बाह मरोड़े रे मीता चल भागे चल दौड़े रे मीता चाँद है छत पे उतरा रे मीता दूर रो रहा कुतरा खर्राटा सरगम गाये क्यों नींद हमें न आये रे मीता ठंडी चादर छत पे रे मीता सपनोवाले रथ पे अंबर से चांदी तोड़े रे मीता गम की बाह मरोड़े रे मीता चल भागे चल दौड़े - स्वानंद किरकिरे

बुलंदी

ख़ुदी को कर बुलंद इतना कि हर तक़दीर से पहले ख़ुदा बंदे से ख़ुद पूछे बता तेरी रज़ा क्या है - अल्लामा इक़बाल हम को मिटा सके ये ज़माने में दम नहीं हम से ज़माना ख़ुद है ज़माने से हम नहीं - जिगर मुरादाबादी न था कुछ तो ख़ुदा था कुछ न होता तो ख़ुदा होता डुबोया मुझ को होने ने न होता मैं तो क्या होता - मिर्ज़ा ग़ालिब प्यासो रहो न दश्त में बारिश के मुंतज़िर मारो ज़मीं पे पाँव कि पानी निकल पड़े - इक़बाल साजिद हर शख़्स से बे-नियाज़ हो जा फिर सब से ये कह कि मैं ख़ुदा हूँ - जौन एलिया

लुत्फ़-ए-मय

लुत्फ़-ए-मय तुझ से क्या कहूँ ज़ाहिद हाए कम-बख़्त तू ने पी ही नहीं - दाग देहलवी  किधर से बर्क़ चमकती है देखें ऐ वाइज़ मैं अपना जाम उठाता हूँ तू किताब उठा - जिगर मुरादाबादी ज़ाहिद शराब पीने दे मस्जिद में बैठ कर या वो जगह बता दे जहाँ पर ख़ुदा न हो - गुमनाम

किताबें

किताबें झाँकती हैं बंद अलमारी के शीशों से बड़ी हसरत से तकती हैं महीनों अब मुलाक़ातें नहीं होतीं जो शामें उन की सोहबत में कटा करती थीं, अब अक्सर गुज़र जाती हैं कम्पयूटर के पर्दों पर बड़ी बेचैन रहती हैं किताबें उन्हें अब नींद में चलने की आदत हो गई है बड़ी हसरत से तकती हैं जो क़द्रें वो सुनाती थीं कि जिन के सेल कभी मरते नहीं थे वो क़द्रें अब नज़र आती नहीं घर में जो रिश्ते वो सुनाती थीं वो सारे उधड़े उधड़े हैं कोई सफ़्हा पलटता हूँ तो इक सिसकी निकलती है कई लफ़्ज़ों के मअ'नी गिर पड़े हैं बिना पत्तों के सूखे तुंड लगते हैं वो सब अल्फ़ाज़ जिन पर अब कोई मअ'नी नहीं उगते बहुत सी इस्तेलाहें हैं जो मिट्टी के सकोरों की तरह बिखरी पड़ी हैं गिलासों ने उन्हें मतरूक कर डाला ज़बाँ पर ज़ाइक़ा आता था जो सफ़्हे पलटने का अब उँगली क्लिक करने से बस इक झपकी गुज़रती है बहुत कुछ तह-ब-तह खुलता चला जाता है पर्दे पर किताबों से जो ज़ाती राब्ता था कट गया है कभी सीने पे रख के लेट जाते थे कभी गोदी में लेते थे कभी घुटनों को अपने रेहल की सूरत बना कर नीम सज्दे में पढ़ा करते थे छूते थे ...