काँच के पीछे चाँद भी था और काँच के ऊपर काई भी तीनों थे हम वो भी थे और मैं भी था तन्हाई भी कल साहिल पर लेटे लेटे कितनी सारी बातें कीं आप का हुंकारा न आया चाँद ने बात कराई भी - गुलज़ार
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Showing posts from 2017
रे मीता
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Zingaro
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रे मीता चल भागे चल दौड़े... एक गली न छोड़े कच्ची अमिया तोड़े चाहे रोके लोग निगोड़े रे मीता गम की बाह मरोड़े रे मीता चल भागे चल दौड़े रे मीता मैं बन्दर तू भालू शल्जम कच्च कचालू चल घुटने लहू सना ले चल गिर गिर जख्म लगा ले रे मीता बचपन फुंसी फोड़े रे मीता गम की बाह मरोड़े रे मीता चल भागे चल दौड़े रे मीता कटी पतंगे लुटे जामुन काले कलूटे सुन मंदिर घंटी बाजी सुन मिस्री बांटे आजी रे मीता तबडक तबडक घोड़े रे मीता गम की बाह मरोड़े रे मीता चल भागे चल दौड़े रे मीता मुनिया बानी लुगाई खूसट की तेहरवी आई रे मीता दोनों तरफ मिठाई हमने भी गजब पचाई सब चुटकुले हंसोड़े रे मीता गम की बाह मरोड़े रे मीता चल भागे चल दौड़े रे मीता चाँद है छत पे उतरा रे मीता दूर रो रहा कुतरा खर्राटा सरगम गाये क्यों नींद हमें न आये रे मीता ठंडी चादर छत पे रे मीता सपनोवाले रथ पे अंबर से चांदी तोड़े रे मीता गम की बाह मरोड़े रे मीता चल भागे चल दौड़े - स्वानंद किरकिरे
बुलंदी
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ख़ुदी को कर बुलंद इतना कि हर तक़दीर से पहले ख़ुदा बंदे से ख़ुद पूछे बता तेरी रज़ा क्या है - अल्लामा इक़बाल हम को मिटा सके ये ज़माने में दम नहीं हम से ज़माना ख़ुद है ज़माने से हम नहीं - जिगर मुरादाबादी न था कुछ तो ख़ुदा था कुछ न होता तो ख़ुदा होता डुबोया मुझ को होने ने न होता मैं तो क्या होता - मिर्ज़ा ग़ालिब प्यासो रहो न दश्त में बारिश के मुंतज़िर मारो ज़मीं पे पाँव कि पानी निकल पड़े - इक़बाल साजिद हर शख़्स से बे-नियाज़ हो जा फिर सब से ये कह कि मैं ख़ुदा हूँ - जौन एलिया
किताबें
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किताबें झाँकती हैं बंद अलमारी के शीशों से बड़ी हसरत से तकती हैं महीनों अब मुलाक़ातें नहीं होतीं जो शामें उन की सोहबत में कटा करती थीं, अब अक्सर गुज़र जाती हैं कम्पयूटर के पर्दों पर बड़ी बेचैन रहती हैं किताबें उन्हें अब नींद में चलने की आदत हो गई है बड़ी हसरत से तकती हैं जो क़द्रें वो सुनाती थीं कि जिन के सेल कभी मरते नहीं थे वो क़द्रें अब नज़र आती नहीं घर में जो रिश्ते वो सुनाती थीं वो सारे उधड़े उधड़े हैं कोई सफ़्हा पलटता हूँ तो इक सिसकी निकलती है कई लफ़्ज़ों के मअ'नी गिर पड़े हैं बिना पत्तों के सूखे तुंड लगते हैं वो सब अल्फ़ाज़ जिन पर अब कोई मअ'नी नहीं उगते बहुत सी इस्तेलाहें हैं जो मिट्टी के सकोरों की तरह बिखरी पड़ी हैं गिलासों ने उन्हें मतरूक कर डाला ज़बाँ पर ज़ाइक़ा आता था जो सफ़्हे पलटने का अब उँगली क्लिक करने से बस इक झपकी गुज़रती है बहुत कुछ तह-ब-तह खुलता चला जाता है पर्दे पर किताबों से जो ज़ाती राब्ता था कट गया है कभी सीने पे रख के लेट जाते थे कभी गोदी में लेते थे कभी घुटनों को अपने रेहल की सूरत बना कर नीम सज्दे में पढ़ा करते थे छूते थे ...
कल चौदहवीं की रात थी
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कल चौदहवीं की रात थी शब भर रहा चर्चा तिरा कुछ ने कहा ये चाँद है कुछ ने कहा चेहरा तिरा हम भी वहीं मौजूद थे हम से भी सब पूछा किए हम हँस दिए हम चुप रहे मंज़ूर था पर्दा तिरा इस शहर में किस से मिलें हम से तो छूटीं महफ़िलें हर शख़्स तेरा नाम ले हर शख़्स दीवाना तिरा कूचे को तेरे छोड़ कर जोगी ही बन जाएँ मगर जंगल तिरे पर्बत तिरे बस्ती तिरी सहरा तिरा हम और रस्म-ए-बंदगी आशुफ़्तगी उफ़्तादगी एहसान है क्या क्या तिरा ऐ हुस्न-ए-बे-परवा तिरा दो अश्क जाने किस लिए पलकों पे आ कर टिक गए अल्ताफ़ की बारिश तिरी इकराम का दरिया तिरा ऐ बे-दरेग़ ओ बे-अमाँ हम ने कभी की है फ़ुग़ाँ हम को तिरी वहशत सही हम को सही सौदा तिरा हम पर ये सख़्ती की नज़र हम हैं फ़क़ीर-ए-रहगुज़र रस्ता कभी रोका तिरा दामन कभी थामा तिरा हाँ हाँ तिरी सूरत हसीं लेकिन तू ऐसा भी नहीं इक शख़्स के अशआ'र से शोहरा हुआ क्या क्या तिरा बेदर्द सुननी हो तो चल कहता है क्या अच्छी ग़ज़ल आशिक़ तिरा रुस्वा तिरा शाइर तिरा 'इंशा' तिरा - इब्न-ए-इंशा
रंजिश ही सही
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रंजिश ही सही दिल ही दुखाने के लिए आ आ फिर से मुझे छोड़ के जाने के लिए आ कुछ तो मिरे पिंदार-ए-मोहब्बत का भरम रख तू भी तो कभी मुझ को मनाने के लिएआ पहले से मरासिम न सही फिर भी कभी तो रस्म-ओ-रह-ए-दुनिया ही निभाने के लिए आ किस किस को बताएँगे जुदाई का सबब हम तू मुझ से ख़फ़ा है तो ज़माने के लिए आ इक उम्र से हूँ लज़्ज़त-ए-गिर्या से भी महरूम ऐ राहत-ए-जाँ मुझ को रुलाने के लिए आ अब तक दिल-ए-ख़ुश-फ़हम को तुझ से हैं उम्मीदें ये आख़िरी शमएँ भी बुझाने के लिए आ - अहमद फ़राज़
आफरीन आफरीन
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हुस्न-ए-जाना की तारीफ मुमकिन नहीं आफरीन आफरीन आफरीन आफरीन तू भी देखे अगर तो कहे हमनशीं ऐसा देखा नहीं खूबसूरत कोई जिस्म जैसे अजंता की मूरत कोई जिस्म जैसे निगाहों पे जादू कोई जिस्म नगमा कोई जिस्म खुशबू कोई जिस्म जैसे मचलती हुई रागिनि जिस्म जैसे महकती हुई चाँदनी जिस्म जैसे की खिलता हुआ एक चमन जिस्म जैसे की सूरज की पहली किरन जिस्म तरशा हुआ दिलकश-ओ-दिलनशीं संदली संदली मरमरी मरमरी चेहरा एक फूल की तरह शादाब है चेहरा उसका है या कोई माहताब है चेहरा जैसे गझल चेहरा जान-ए-गझल चेहरा जैसे कली चेहरा जैसे कंवल चेहरा जैसे तसव्वुर भी तस्वीर भी चेहरा एक ख्वाब भी चेहरा ताबीर भी चेहरा कोई अलिफ़-लैलवी दास्तान चेहरा एक पल यक़ीन चेहरा एक पल गुमान चेहरा जैसे की चेहरा कही भी नहीं माहरू माहरू महजबीन महजबीन आँखें देखी तो मैं देखता रह गया जाम दोनों और दोनों ही दो आतिशा ऑंखें या मयक़दे के दो बाब है आँखें इनको कहूँ या कहूँ ख्वाब है ऑंखें नीची हुई तो हया बन गयी आँखें ऊँची हुई तो दुआ बन गयी आँखें उठ कर झुकी तो अदा बन गयी आँखें झुक कर उठी तो कदा बन गयी ऑंखें जिन में है कैद आसमान-ओ-जमीन ...
अल्लामा इकबाल
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निगाह बुलंद सुख़न दिल-नवाज जाँ पुर-सोज़ यही है रख्त-ए-सफर मीर-ए-कारवाँ के लिए --- अमल से जिंदगी बनती है जन्नत भी जहन्नम भी ये खाकी अपनी फितरत में न नूरी है न नारी है --- खुदी को कर बुलंद इतना की हर तक़दीर से पहले खुदा बन्दे से खुद पूछे बता तेरी रजा क्या है --- सितारों से आगे जहाँ और भी है अभी इश्क़ के इम्तिहाँ और भी है तू शाही है परवाज है काम तेरा तेरे सामने आसमाँ और भी है ---
भाऊसाहेब पाटणकर
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उपमा तव वदनाला त्याची मी ही दिली असती सुखे थोडेही जर त्याला येते लाजता तुज सारखे --- जातो तिथे उपदेश आम्हा सांगतो कुणीतरी किर्तने सारीकडे ..सारीकडे ज्ञानेश्वरी काळ्जी आमच्या हिताची एवढी घेवू नका जावू सुखे नरकात तेथे तरी येवू नका. --- भास्करा आम्हा दयाही येते तुझी अधिमधी पाहिली आहेस का रे रात्र प्रणयाची कधी? आम्हासही या शायराची मग कीव येऊ लागते याच्या म्हणे प्रणयास याला रात्र यावी लागते!! --- दोस्तहो दुनियेस धोका मेलो तरी आम्ही दिला येऊनही नरकात पत्ता कैलासचा आम्ही दिला हाय हे वास्तव्य माझे सर्वास कळले शेवटी सारेच हे सन्मित्र माझे येथेच आले शेवटी
आए कुछ अब्र कुछ शराब आए
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Zingaro
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आए कुछ अब्र कुछ शराब आए इस के बा'द आए जो अज़ाब आए बाम-ए-मीना से माहताब उतरे दस्त-ए-साक़ी में आफ़्ताब आए हर रग-ए-ख़ूँ में फिर चराग़ाँ हो सामने फिर वो बे-नक़ाब आए उम्र के हर वरक़ पे दिल की नज़र तेरी मेहर-ओ-वफ़ा के बाब आए कर रहा था ग़म-ए-जहाँ का हिसाब आज तुम याद बे-हिसाब आए न गई तेरे ग़म की सरदारी दिल में यूँ रोज़ इंक़लाब आए जल उठे बज़्म-ए-ग़ैर के दर-ओ-बाम जब भी हम ख़ानुमाँ-ख़राब आए इस तरह अपनी ख़ामुशी गूँजी गोया हर सम्त से जवाब आए 'फ़ैज़' थी राह सर-ब-सर मंज़िल हम जहाँ पहुँचे कामयाब आए - फैज अहमद फैज